Saturday 29 April 2017

सोशल मीडिया : शक्ति और सीमाएं




 चांडिल के 'मितान जुमिद' यानी, दोस्तों के मिलन स्थल में आज से छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की तीन दिवसीय 'युवा कार्यशाला' चल रही है.शिविर में झारखंड के 2 जिला के 30 साथियों की भागीदारी अब तक हुई है। शिविर के संदर्भ में साथी विनोद कुमार का विचार।। 

सोशल मीडिया : शक्ति और सीमाएं
सोशल मीडिया ने सूचना के आदान प्रदान के सारे बंधनों को तोड़ दिया है. अब हमारे आस पास होने वाली किसी भी तरह की घटना देर तक रहस्य के आवरण में ढकी रहे यह संभव नहीं. कारपोरेट पोषित मीडिया पर निर्भरता कम हुई है. लेकिन सवाल यह उठता है कि सूचना पाकर भी आप करेंगे क्या? इस व्यवस्था को बदलने के लिए तो आपको संगठन और संघर्ष की जरूरत पड़ेगी और इसके लिए आपको फेसबुक की आभासी दुनियां से बाहर आना पड़ेगा. आईये, हम  सोशल मीडिया की कुछ सीमाओं की चर्चा करें.
एक. यह हमारा बहुत सारा समय लेने लगा है. इसका ज्यादातर उपयोग 'फेस' बुक की तरह होने लगा है. यानी हम अपने व्यक्तित्व और उसकी अभिव्यक्ति को जरूरत से ज्यादा महत्व देने लगे हैं.
दो. किसी भी घटना पर हमारी त्वरित टिप्पणी/प्रतिक्रिया ज्यादातर भावात्मक होती हैं और इसलिए आवेग से भरी होती है और दूसरों को प्रभावित भी करती है. लेकिन वे विवेकसम्मत भी हों, यह जरूरी नहीं. विवेक तो ज्ञान से पैदा होता है और ज्ञान के लिए प्रकृति से तादात्म, लोगों से बातचीत—विमर्श और पढना लिखना जरूरी है. लेकिन इन सब बातों की घोर उपेक्षा हम करने लगे हैं. अनुभवजन्य ज्ञान भी हमारे काम आ सकता है, लेकिन इसके लिए सामाजिक सक्रियता तो जरूरी है, जो हम नहीं करते. बंद कमरे में अनुभवजन्य ज्ञान पैदा नहीं हो सकता.
एक बड़ी समस्या यह है कि हमारे विश्वास और आत्मविश्वास का घटना बढना सोशल मीडिया पर इस बात पर निर्भर करने लगा है कि आपकी प्रतिक्रिया को कितना 'लाईक' मिलता है. यदि कम मिला तो हम अपने ही लेखन और अनुभवजन्य ज्ञान को लेकर निराशा से भर जाते हैं और यदि 'लाईक' ज्यादा मिला तो अपनी मूढता पर भी घमंड से भर जाते हैं. यह दोनों स्थितियां खतरनाक हैं.
 सोशल मीडिया कुल मिला कर एक आभासी दुनियां है. इसकी घनिष्ठता भी आभासी ही है. यह सुविधाजनक है कि इसकी वजह से आप किसी मित्र को अस्पताल जाकर देखने से बच जाते हैं, बस कुछ शब्द कह कर अपने दायित्वबोध से मुक्त हो जाते हैं. लेकिन इसकी बराबरी तो उस संवेदनात्मक अनुभूति से हो ही नहीं सकती जब आप वास्तव में किसी के कपोल पर बहता आंसू अपने हाथों से पोछते हैं या किसी को आत्मीयता से गले लगाते हैं. लेकिन वह सुख हमारे जीवन से तिरोहित होने लगा है.
 सोशल मीडिया एक मिथ्या भ्रम की स्थिति भी बनाने लगा है कि शोषण और विषमता से भरी इस व्यवस्था को बदलने की दिशा में बहुत कुछ हो रहा है हमारे चारो ओर. लेकिन हकीकत यह है कि हमारे चारो तरफ निराशाजनक स्थिति है और जमीनी संघर्ष करने वाले लोग गिने चुने हैं. धर्मनिरपेक्ष और लोतांत्रिक शक्तियां कमजोर पड़ रही हैं और हिंदुत्ववादी—असहिष्णु ताकतें निरंतर मजबूत हो रही है. सोशल मीडिया में ज्यादातर लोग समाज की व्याख्या करते दिखते हैं, जबकि जरूरत समाज को बदलने की है और इसके लिए तो हमे सोशल मीडिया से बाहर निकलना होगा.
जरूरी है कि हम सोशल मीडिया का 'उपयोग' करें, उसके 'मरीज' न बन जायें.


#      आप भी अपना विचार दे सकते है।                          

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