Thursday 17 November 2016

प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रामसभा का अधिकार



ता. ५, ६ नवम्बर को ‘*प्राकृतिक *संसाधनों पर ग्रामसभा का अधिकार’ विषय पर
गुजरात के नर्मदा जिले में सम्मेलन संपन्न हुआ. संपूर्ण क्रांति विचार धारा के
संगठन जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी द्वारा सम्मलेन का आयोजन किया गया था.

‘प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रामसभा का अधिकार’ यह सम्मलेन का विषय होते हुए भी ‘वन
अधिकार कानून’ ही सम्मलेन का केंद्र बना रहा.

बिहार, झारखण्ड, गुजरात के जंगल इलाके में कार्यरत कार्यकर्ता व स्थानिक
नागरिकों की उपस्थिती विशेष रही. करीबन तीनसौ व्यक्तियों की भागीदारी रही.

गुजरात के भरूच जिले के दो टुकडे किये गये. दूसरे का नाम नर्मदा जिला रखा गया.
नर्मदा जिले के पूर्व भाग में देडियापाडा तहसील है. यह तहसील सातपुडा के पहाड़
व जंगल से घिरी है. नर्मदा नदी का इलाका है. यह क्षेत्र शूलपानेश्वर अभयारण्य
में समाविष्ट है.

इस क्षेत्र में, जहां सौ टका आदिवासी गांव है, आर्च-वाहिनी गए २६ सालों से सघन
कम कर रही है. तृप्ती पारेख, अम्बरीश मेहता व राजेश मिश्रा यह तीन साथी इस
क्षेत्र में डटे है.

सम्मेलन के शुरुआत में साथी अम्बरीश इन्होंने ‘वन अधिकार कानून’ के तहत हुए
काम की जानकारी दी. उन्होंने कहा, वे उन २६ आदिवासी गावों की बात कर रहे हैं
जहां २६ सालों से वे सघन काम कर रहे हैं.

‘वन अधिकार कानून’ १ जनवरी २००८ से पुरे देश में अंमल में आया है. यह कानून
प्रत्यक्ष लागू हो इसलिए आर्च-वाहिनी काम में लग गई. ग्रामसभाओं की बैठकें हुई
जिनमें कानून के अनुसार ‘वन अधिकार समिती’ का गठन हुआ. कानून की जानकारी देने
के लिए प्रशिक्षण शिविर लिए गए.

इस कानून के मुताबिक ‘आदिवासिओं का वन पर का सामूहिक अधिकार’ मान्य किया गया
है. इस कानून के तहत जंगल के उत्पादनों पर अधिकार, पानी व चराई अधिकार मान्य
किया गया है. इसके अलावा परंपरागत वन-संसाधनों के ‘व्यवस्थापन का अधिकार’ भी
ग्रामसभा को दिया गया है.

सम्मेलन सांकली गांव में था. यह गांव जंगल से घीरा हुआ है. गांव के समाज मंदिर
(हॉल) (जो परंपरागत आदिवासी वास्तुशास्त्र का नमूना है) में सम्मलेन चला. ‘वन
अधिकार कानून’ की चर्चा वह भी जंगल से घीरे आदिवासी गांव में! इस परिवेश के
कारण सम्मेलन की परिणामकारकता बढ़ी।

लोगों का प्रशिक्षण व संगठन के कारण २६ गावों की ३,६८७ खेती के प्लॉट आदिवासी
किसानों के नाम हुए है. इन सभी प्लॉटस् का क्षेत्रफल एकत्रित किया जाए तो वह ६७
,००० हेक्टर बनता है. याने ६,७०० हेक्टर जमीन पर आदिवासियों का कानूनी अधिकार
बना है. इस जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए वे कुंआं खोद सकते हैं. सरकारी योजनाओं
का लाभ ले सकते हैं जो आज तक उन्हें नहीं मिल पा रहा था.

इन २६ गावों (‘वन अधिकार कानून’ के तहत) का ‘सामुदायिक अधिकार’ मान्य हो गया
है. साथी अम्बरिश इन्होंने अंडरलाईन करते हुए कहा की अभयारण्य जैसा आरक्षित
क्षेत्र होते हुए भी गांव के अधिकारों को मान्यता मिली हैं. उन्होंने आगे चलकर
कहा की नर्मदा जिले के १९० से भी ज्यादा गावों के सामूहिक  अधिकारों को इस
प्रकार मान्यता मिल गई हैं. यह इस कार्यक्षेत्र की विशेष उपलब्धि हैं.

यह ‘वन अधिकार कानून’ अंमल में आने से पहले इन गावों की बदहाली पर प्रकाश
डालते हुए उन्होंने कहा की यहां दारुण गरीबी थी. गरमी में दो टका खाना भी नसीब
नहीं होता था. दूसरी ओर वन विभाग के कर्मचारियों का पूरा आतंक छाया हुआ था.
जंगल-जमीन पर खेती करने के अलावा लोगों के पास कोई चारा नहीं था. और वन विभाग
के कर्मचारी खेती करने नहीं देते थे. खड़ी फसल को बरबाद करते. बैल व अन्य सामान
जप्त करते, घूस मांगते, पिटते, जंगल से लकड़ी नहीं लेने देते. आतंक व भय था.

‘वन अधिकार कानून’ प्रत्यक्ष व्यवहार में आने से पहले ही वन विभाग का आतंक
समाप्त हुआ था. लोग व वन विभाग के आपसी संबंध बदल गए थे. ‘वन अधिकार कानून’ के
कारण लोगों के जीवन में स्थिरता आयी. आर्थिक स्थिती में सुधार हुआ. खेती की
उपज बढ़ी. लोगों की ताकत व आत्मविश्वास बढ़ा.

‘सामुदायिक अधिकार’ सभी गावों को मिलने के कारण वनों का व्यवस्थापन ग्रामसभा
के हाथों आ गया है. सन २०१४-२०१५ में ५ गावों ने जंगल के बांस बेचे. इन गावों
को एक करोड़ साठ लाख रुपयों की कमाई हुई. जिसमें से नब्बे लाख रूपये गांववालों
को बांस काटने की मजदूरी के तहत दिए गये और सत्तर लाख रूपये ग्रामसभा के पास
बचें जिसका उपयोग ग्रामसभा करेगी.

इन सब कारणों से लोगों की कमाई बढ़ी है. बच्चे स्कूलों में जाते हैं.
देखते-देखते एक पूरी पीढ़ी १२वी कक्षा तक या कुछ तो कॉलेज तक की पढाई ख़त्म करके
आगे निकल गयी है. घर पक्के बन रहे हैं. घरों में शौचालय बनें यह महिला, बच्चों
का आग्रह है.

भविष्य के बारे में क्या करना बाकि है इस पर उन्होंने कहा की खेती व अन्य
उत्पादन के लिए खरेदी-बिक्री के लिए को-ऑपरेटिव्ह सोसायटी बनानी है. गांव के
वन क्षेत्र के लिए प्रबंधन योजना (मैनेजमेंट प्लान) बनाने हैं।

सम्मेलन में सवाल-जवाब भी हुए. एक जानकारी सामने आयी वह यह की लड़ाई में
महिलाएं आगे रही हैं. लेकिन ग्रामसभा की कार्यकारिणी में महिला नहीं है.
ग्रामसभा में महिलाओं की उपस्थिती कम रहती है. सामाजिक स्थिती में आये बदलाव
पर चर्चा चली. मजदूरी स्त्री-पुरुष को समान दी जाती है. डायन की बात कम हुई
है. महिलाओं पर हिंसा कम हुई है.

आखरी सत्र में उपस्थित साथिओंने अपने विचार व्यक्त किये. वनाधिकार के साथ समता
के मूल्य होने चाहिए. ग्राम स्वराज्य व वर्गीय-संघर्ष साथ चलने चाहिए. विषमता
के पोषक तत्त्वों को ख़त्म करना है. वन अधिकार कानून में गांव से बहनेवाली नदी
की रेती पर गांव का अधिकार होना चाहिए.ग्राम सभा सशक्त होनी चाहिए।

सांकली गांव के पास जुना मोझदा नाम का गांव है. जहां सर्वोदयी
कार्यकर्ता मायकेल माजगांवकर व स्वाती देसाई यह पति-पत्नी वर्षों से रहते है.
छः गावों में उनका वहां काम है. सौर उर्जा, खेती उत्पादन पर प्रक्रिया करना, जमीन
का वॉटर लेव्हल बढ़ाना यह रचनात्मक काम वे वहां कर रहे हैं. साथ ही वन अधिकार
कानून को अंमल में ला रहे हैं. साथी मायकेल सम्मेलन में उपस्थित थे. उन्होंने
जीपीएस सर्व्हे पर प्रश्न उठाया. (इसकी जानकारी स्वयं जान लें) .उसी तरीके से
ग्रामसभा को बांबू बेचने से कितना मुनाफा हुआ यह सफलता का पैमान ‘
मार्केट-ओरिएंटेड’ है. यह आलोचना भी उन्होंने की. चंद्रपूर (महाराष्ट्र) जिले
के साथी मोहन.ही.ही. की सम्मेलन में विशेष उपस्थिती रही.( जिन्हें हालही में
जमनालाल बजाज पुरस्कार मिला है।)

कानून बने इसलिए संघर्ष होते हैं. लेकिन कानून बनने के बाद उसके अंमल के लिए
प्रयास नहीं किये जाते. कानून लोगों को समझना चाहिए. कानून को अंमल में लाने
का काम करना चाहिए. प्रशिक्षण, रचना जरुरी है. यह आर्च वाहिनीने सम्मेलन में
सामने रखा.खनिज संपदा पर ग्राम सभा का अधिकार कैसे हो इस विषय पर चर्चा नहीं
हुई। इस विषय पर स्वतंत्र चर्चा आयोजित करनी चाहिए।  यह सुझाव उड़ीसा के
कार्यकर्ताओं ने रखा।

सम्मेलन के समाप्ति के बाद सभी साथियों को जंगल में , जहां बांबू है, ले जाया
गया. वहां भी जंगल से परिचित करते हुए अनौपचारिक चर्चा होती रही.

सांकली गांव के बगल में मिशनरियों की भव्य स्कूल है. जहां रहने की व्यवस्था की
गयी थी. जंगल के अंदरूनी इलाके में बनी स्कूल अचंबित करनेवाली थी. वहां के
फादर से हम मिलें. वे ८० वर्ष के होंगे. सन १९६० में वे वहां आये और आज तक वही
रह रहे हैं. वे मूल स्पेन के निवासी हैं.

सम्मेलन के बाद तृप्ती, मायकेल से अनौपचारिक चर्चा होती रही. डांग जिले में
दंगा हुआ था. वह संदर्भ मनमें था. उड़ीसा के कंधहाल व असम के कोकराझाड़ (जो सभी
आदिवासी इलाके है) में भी दंगे हुए हैं. देडियापाडा तहसील की स्थिती क्या है? यह
मेरा सवाल था.

मिली जानकारी के अनुसार मिशनरी तो वर्षों से इस इलाके में कार्यरत है. अब
हिंदुत्त्ववादी भी है. कुछ तत्त्व तो सक्रीय है ही. जो विद्वेष फ़ैलाने की
फ़िराक में रहते हैं. मायकेल को इसका बुरा अनुभव भी आया है. साथी राजेशने कहा
की यह सच है लेकिन इन तत्त्वों को इस इलाके में जमीन नहीं मिल रही है. जिस
गांव में सम्मेलन हुआ उसी सांकली गांव में कुछ वर्ष पहले दिवंगत नारायण देसाई
इनकी गांधी-कथा हुई थी.

- जयंत दिवाण


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